हर बात पे कहते हैं सब,
ज़रा समझो न,
तुम तो समझदार हो…
कहते कहते कह गए होंगे वो ,
दिल में थोड़ी है उनके ज़हर जो ,
बुरा मान जाती हो !
दिल पे मत लेना उनकी बातों को,
वो तो ऐसे ही हैं सालों से।
बाकी , तुम तो समझदार हो।
उनकी तो आदत है ऐसी ही।
तुम ज़रा आदत डाल लो।
रिश्ते निभाने हैं , तो त्याग सीखना होगा ,
अपने ज़हन में ये पाल लो।
आखिर छोटी छोटी बातें ही तो हैं !
उनका बखेड़ा क्यों खड़ा करना।
फिर सहने वाला बड़ा होता है कहने वाले से …
अब तुम्हें भला क्या समझाना।
तुम तो बहादुर हो , अकेले ही निपटा लोगी !
तुम तो काबिल हो , तुम्हें किसी की ज़रुरत क्या होगी !
तुम तो Adjustive हो , सब संभाल लोगी !
बाकी , तुम तो समझदार हो !
न जी ! बहुत पड़ गयी भारी ,
मुझे मेरी समझदारी !
अब ज़रा नासमझ बनकर देखती हूँ ,
क्या कोई मेरे लिए समझदार बन सकता है ?
कहते कहते में भी कुछ कह लेती हूँ।
बुरा क्यों वो मानेंगे ?
सब जानते तो हैं, में समझदार हूँ।
सालों से इंतज़ार किया है मैंने भी ,
वो भी समझदार बन जाएँगे कभी।
आज जाओ उनसे कह दो ,
अब नासमझ हूँ में तो !
रिश्तों में इकतरफ़ा त्याग का ठेका लेना,
मैंने बंद करना सीख लिया है।
दूसरों की आदतों को समझकर , अपनी आदत बदलना …
कितनी जो बुरी आदत थी ,
अब इसका एहसास हुआ है।
हाँ मैं बहादुर हूँ ,
पर ज़िंदगी के जंग को अकेले लड़ना ही इक बहादुरी नहीं।
हाँ मैं काबिल हूँ , ज़रुरत भी नहीं किसी चीज़ की।
पर ज़रा हाथ बटा लोगे तुम तो , मेरी शूरवीरता कहाँ काम होगी ?
ज़रा भागीदारी निभा लो तुम तो , मेरी काबिलियत कहाँ कम होगी ?
छोटी छोटी बातों के सालों से बटोरे बस्ते में,
इक छोटा सा छेद आया है।
छोटा सा ही तो छेद है ,
सील लो समय पर बस।
तुमने बखेड़ा क्यों बनाया है !
अब सहनशीलता और बड़प्पन का मुझे नहीं आचार बनाना।
सह लेना ज़रा तुम भी , और उनसे भी कह देना …
आख़िर सहने वाला बड़ा है कहने वाले से।
सालों की थकान है मेरी –
समझदारी की , सहनशीलता की ,
छोटी छोटी बातों की ,
Adjust कर लेने की ,
दूसरों के पुश्तैनी आदतों की …
इतनी आसानी से कहाँ मिट पायेगी !
हाँ जी ! तुम भी समझदार हो ,
समझा लेना सबको।
मैं अब भी बहादुर हूँ , क़ाबिल हूँ ,
अकेले ही काफ़ी हूँ ,
बस अब ज़रा नासमझ हूँ !!